धरती पर मंडराता संकट - SocialWelBeing
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धरती पर मंडराता संकट

धरती पर मंडराता संकट

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धरती पर मंडराता संकट - socialwelbeing.in

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सृष्टि की रचना प्रकृति के आश्रय में माया द्वारा प्रभु की इच्छा से संपन्न हुई। प्रभु ने कर्म का कठोर विधान बनाया। जीवन देकर अनेक विषय उपस्थित किए तथा जीवन यापन के अनगिनत साधन उपलब्ध कराए। ईश्वर ने जीवन के लिए अनिवार्य सभी वस्तुओं के स्रोत उत्पन्न किए।

ईश्वर ने सबसे ऊपर मानव की रचना की, जिसे अपनी सभी शक्तियों से सुसज्जित किया। भगवान ने कर्म की कसौटी पर मनुष्यों को अच्छा-बुरा समझने की बुद्धि प्रदान की तथा लोक और परलोक दोनों को ईश्वरीय नियमों से बांध दिया।

मनुष्यों को सबसे ऊपर बनाने तथा अपार शक्तियों से सुसज्जित करने के साथ ही ईश्वर ने पृथ्वी की रक्षा के लिए मानवों की भूमिका भी तय की। किंतु समय बीतने के साथ ही मानव ने शक्तियों का सदुपयोग कम और दुरुपयोग अधिक करना सुरु कर दिया। बुद्धि को अच्छाई में कम, बुराई में अधिक प्रयक्त किया। ज्ञान को विज्ञान की ओर प्रवृत्त किया। सद्कर्म के स्थान पर दुष्कर्म का वरण किया। मनुष्यों ने प्रकृति के विपरीत अपनी शक्तियों को संधानित किया। विवेक त्याग कर अहंकार के वशीभूत मौलिक तत्वों पर इतना कुठाराघात किया कि आज प्रकृति का कोपभाजन सभी प्राणियों को भोगना पड़ रहा है।

प्रकृति का रोष अब शायद तभी शांत होगा, जब मानव अपने कर्म-रथ को उद्देश्यपूर्ण पथ पर खड़ा करे और ईश्वरीय नियमों का पालन करते हुए जीवन के लक्ष्य का संधान करे, तथा कर्म-अकर्म की साधना में नैसर्गिक संतुलन को हर क्षण संभालने की कोशिश करें। अन्यथा विपरीत परिणाम का दंश अनिवार्य है।

आज, जैविक प्रवंचना तत्वों के रासायनिक विघटन ने पृथ्वी पर तबाही के परिणाम को प्रकट किया है। इसलिए सावधानी के साथ जीव धर्म या जीवन पद्धति को पुनः अपनाने के लिए, हमारे पास ज्यादा समय शेष नहीं है।

प्रभु की सृजनात्मक शक्तियों को विध्वंसात्मक कार्य में लगाने से प्रकृति का कोप पृथ्वी को एक बड़े अनर्थ की ओर ले जा रहा है, जिसे रोकने का पुरुषार्थ किया जाना अत्यंत आवश्यक हैं। क्योंकि यही एकमात्र रास्ता है जिससे संहार को संभार की ओर ले जाया जा सकता हैं।

प्रकृति ही पृथ्वी पर जीवन का भरन पोषण करती है, इसलिए उसकी मर्यादा को भी ठीक उसी तरह साधना चाहिए, जिस प्रकार हम जननी की मर्यादा को सुरक्षित करते है। आज हमारी जननी हम से नाखुश हैं तो हम सभी का यह परम कर्तव्य बनता है कि हम सभी अपनी जननी अर्थात इस पृथ्वी की रक्षा की ओर अपना कदम बढ़ाए, इससे पहले कि हमे इसके कोई भयंकर दुष्कारी परिणाम का सामना करना पड़े।

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